संजय तिवारी
खबरों का चरित्र बदल रहा है। कुछ साल पहले जिन बातों को गाशिप के तौर पर छापा जाता था आज वे ही खबर का रूप धारण कर चुकी हैं। अब राजनीति, समाजनीति और अर्थनीति की जगह फिल्मी गाशिप और खेलकूद प्रमुख हो गये हैं। सेंटर फॉर मीडिया स्टडीज के एक ताजा अध्ययन में यह बात उभरकर सामने आयी है कि साल 2005 में फिल्मी गपशप, खेलकूद और अपराध् को टीवी चैनलों ने 28 प्रतिशत जगह दिया था वह पिछले साल 2007 में बढ़कर 50 प्रतिशत हो गया है। जबकि राजनीतिक खबरों का प्रतिशत 2005 में 23 प्रतिशत से घटकर सिर्फ़ 10 प्रतिशत रह गया है।साल 2004 में 24 समाचार चैनल थे जो 2007 में बढ़कर 43 हो गये हैं। अंग्रेजी चैनलों का फोकस खाने-पीने, मौज-मस्ती और बाजार से जुड़ी बातों पर है क्योंकि वे उभरते मध्यवर्ग के बीच अपनी पैठ बनाना चाहते हैं। जबकि हिन्दी चैनल की गलाकाट प्रतिस्पर्ध में खबर खत्म ही हो गयी है। अब यह अंदाज लगाना मुश्किल है कि खबर क्या है और फिक्शन क्या है। यहां एक बात ध्यान देने की है कि कुल चैनल दर्शकों में अभी भी हिन्दी समाचार चैनलों के पास 13 प्रतिशत दर्शक हैं जबकि अंग्रेजी चैनल दो प्रतिशत और व्यावसायिक चैनल भी दो प्रतिशत लोग देखते हैं। इसलिए हिन्दी समाचार चैनलों की विज्ञापन दर अग्रेजी के चैनलों से ज्यादा है।10 सेकेण्ड के एक स्लाट के लिए औसत हिन्दी चैनल 1500 से 1700 रूपये वसूलता है जबकि इसी दस सेकेण्ड के स्लाट के लिए अंग्रेजी चैनल 1200 से 1500 रूपये लेता है। विज्ञापनदाता हिन्दी चैनलों के व्यवहार से खुश हैं। इसका परिणाम यह हुआ है कि साल 2004 में भाषाई चैनलों पर जहां 63 करोड़ रूपया खर्च किया गया था वहीं साल 2007 में 110 करोड़ रूपये खर्च किये गये। जैसा कि सीएनएन आईबीएन के मुख्य संपादक राजदीप सरदेसाई कहते हैं ‘संख्या का अपना महत्व है। इस लिहाज से हिन्दी का वर्चस्व तो बना ही रहेगा।’ जाहिर सी बात है जब संख्या महत्वपूर्ण हो जाए तो क्वालिटी की बात करना कहां तक उचित होगा।
Monday, August 25, 2008
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