Wednesday, November 12, 2008

पत्रकार बनने के लिए साक्षात्कार

अर्जुन विनियानी

इस लेख के जरिए मैं आपको एक काल्पनिक साक्षात्कार से रूबरू कराना चाहता हूं, जिसमें दिल्ली विश्वविद्यालय का पत्राकारिता स्नातक एक नामी समाचार चैनल में पत्राकारिता करने का मौका पाने के लिए चैनल के प्रमुख से मिलता है। यह छात्र ऐसा सोचता है कि पत्राकारिता अभी भी मिशन है और पत्राकार बनना बेहद मुश्किल और जिम्मेदारी का कार्य है। परंतु इस साक्षात्कार ने उसकी आंखें खोल दीं। मीडिया स्कैन के पाठकों लिए प्रस्तुत है वह साक्षात्कारः

चैनल प्रमुखः कम इन प्लीज, हैव अ सीट।

छात्र: ध्न्यवाद सर।

चैनल प्रमुखः वाट इज योर नेम?

छात्र : जी मेरा नाम मधुसुधन है।

चैनल प्रमुखः डोंट यू नो इंग्लिश?

छात्र : जानता हूं सर। पर मुझे लगा कि मैं हिन्दी चैनल में आया हूं।

चैनल प्रमुखः (झिझकते हुए) ओके। क्या तुम स्क्रिप्ट लिखना, एडीटींग और कैमरा हैंडलिंग जानते हो?

छात्र : जी नहीं। परन्तु मुझे समाचारों की समझ है। मुझे प्रेस कानून की जानकारी है और एक पत्राकार की जिम्मेदारियों का बखूबी अहसास है।

चैनल प्रमुखः क्या तुमने ये तकनीकी ज्ञान विश्वविद्यालय में नहीं सिखी?

छात्र : जी, पर मेरा मानना है कि एक पत्राकार के लिए पढ़ना और लिखना सबसे अहम है। ना कि कैमरा चलाना और एडीटींग।

चैनल प्रमुखः आपकी पसंद का बीट क्या है?

छात्र : जी, राजनीति और बिजनेस।

चैनल प्रमुखः बॉलीवुड और क्रिकेट क्यों नहीं? खैर, आपके कितने प्रतिशत अंक आए थे।

छात्र : जी, अठावन फीसद ।

चैनल प्रमुखः अठावन यानी फिफ्टी एट पर्सेंट ना। अच्छा ऐसा है अभी हम आपसे एक स्क्रिप्ट लिखवाएंगे और आपका वाइस टेस्ट लेंगे। इसके बाद जैसा होगा, आपको बता दिया जायेगा ।

छात्र : शुक्रिया सर।


इस टेस्ट के कुछ देर बाद इस छात्र को पता चला कि उसका चयन नहीं हुआ। अचानक कैंटिन में चैनल प्रमुख फिर छात्र से टकरा गए। छात्र खुद को खारिज किए जाने के कारणों के संबंध् में जब चैनल प्रमुख से बात करता है। तो प्रमुख साहब ने फ़रमाया कि तुम बेहद प्रतिभाशाली हो लेकिन हमें ऐसे लोग नहीं चाहिए। हमें पत्राकार की नहीं बल्कि बाइट कलेक्टर की जरूरत है। जिन्हें खुश रखने के लिए हम पत्राकार का तमगा थमा देते हैं। आगे बोले कि तुम्हारी स्क्रिप्ट में मसाला नहीं था। तुम्हारी आवाज सनसनी नहीं उत्पन्न कर पा रही थी और तुम्हारा चेहरा फोटोजेनिक नहीं है। हां, अगर तुम खूबसूरत लड़की होते तो मैं तुम्हें स्लेक्ट कर लेता। तुम्हारी बीट राजनीति और बिजनेस है। जबकि सियासी खबरें हम अपने समर्थक पार्टी के हिसाब से चलाते हैं और बिजनेस न्यूज विज्ञापनादाताओं के आधार पर प्रसारित करते हैंे। हां, अगर तुम सनसनीसखेज खबरों को जुटाने में सक्षम होते तो मैं कुछ सोच सकता था। छात्र ने कहा कि सर यदि आपके द्वारा बताई गई कमियां मेरे अंदर नहीं होतीं तो आप मुझे काम पर रख लेते? चैनल प्रमुख ने कहाः शायद। छात्र ने कहा शायद क्यों सर? प्रमुख बोले कि वो इसलिए कि तुम्हारे पास किसी बड़े आदमी की सिफारिश नहीं है, जो सबसे अहम है।

ग्लैमर ही नहीं गंभीरता भी

सौरभ राय

जर्नलिज्म एक ऐसा व्यवसाय है जो ग्लैमर यानी नेम एंड फेम से सराबोर है। इस क्षेत्र के चमकते सितारों की चकाचौंध युवाओं को अपने ओर आकर्षित कर रही है। जलवेदार पत्राकारिता का ख्वाब सींचकर न जाने कितने लोग इसके लिए अपने को 'फिट एंड फाइन ’ मानने लगते हैं। पर जब वे सपनों को हकीकत में बदलने के लिए धरातल पर आते हैं तो ग्लैमर के पीछे की मेहनत को देखकर उनके होश फाख्ता हो जाते हैं। उनके सारे ख्वाब जमीनी हकीकत से टकराकर बिखर जाते हैं।

इस पेशे में आने की हसरत पालने वालों को भ्रम में फंसने से बचना होगा। पत्राकारिता की कुछ बुनियादी जरूरतें हैं जिनका ज्ञान तो हर हाल में होना ही चाहिए। साहित्य में कल्पना के घोडे़ दौड़ाए जा सकते हैं पर पत्राकारिता में ‘फिगर और फैक्ट्स ’ का काफी महत्व होता है। पत्राकारिता के लिए सुंदर चेहरा होना अनिवार्य शर्त नहीं है बल्कि जर्नलिस्टिक अप्रोच जरूरी है। पत्राकारिता का मतलब सिर्फ टीवी पर दिखना और बाईलाइन पाकर चमकना नहीं है। इस क्षेत्र से जुड़े अधिकाँश लोग पर्दे के पीछे रहकर महत्वपूर्ण काम करते हैं। इलैक्टानिक मीडिया मे स्किप्ट राइटर, रन डाउन प्रोडयूसर, न्यूज एडीटर, आउटपुट एडीटर जैसे लोगों की भूमिका बेहद अहम होती है। डेस्क में काम करने वालों की भाषा सुधरती जाती है। डेस्क का अनुभव आगे चलकर रिपोर्टिंग में काम आता है। इस पेशे में काम करने के लिए कोई निश्चित टाइम-टेबल नहीं होता। एक पत्राकार को घटनाओं के हिसाब से हर वक्त तैयार रहना होता है। इस क्षेत्र में कदम रखने वाले शुरूआती दिनों में ही ऊँची पगार की उम्मीद करते हैं। पर ऐसा नहीं है। बडे़-बड़े पत्राकारों को अपने शुरूआती दिनों में काफ़ी कम पैसा पर काम करना पड़ा है।

इसके अलावा भाषा पर पकड़, नया सीखने की ललक, अपडेटेड सामान्य ज्ञान, कठोर मेहनत, अध्ययन, तथ्यों की परख, सतर्कता आदि वे गुण हैं, जिनके बगैर इस क्षेत्र में सफलता की कल्पना नहीं की जा सकती है। निष्पक्षता और ईमानदारी इस पेशे की अनिवार्य योग्यता हैं। एक पत्राकार को कई तरह के दबावों और प्रलोभनों के बीच काम करना होता है। पत्राकार समाज को एक दिशा देने का काम करता है। इसलिए कहा भी जाता है, ‘न्यूजपेपर्स आर स्कूल मास्टर्स ऑफ़ द कामन पीपुल’।
(लेखक दैनिक अखबार ‘हरिभूमि’ में कार्यरत हैं.)

Sunday, September 7, 2008

उम्मीद की किरण....

मनीष सिसोदिया

जानने का हक आदमी के जीने का हक है. सरकारी संदर्भ को छोड़ कर देखें तो समझ में आता है कि अगर जानने का हक न मिले तो आदमी का वज़ूद ही खतरे में पड़ जाएगा. आदमी की ज़िंदगी और पशुओं की ज़िंदगी में कोई फर्क नहीं रह जाएगा. हम इस मामले में खुद को सौभाग्यशाली समझ सकते हैं कि आज़ादी के बाद बने संविधान में हमें बोलने, यानि खुद को अभिव्यक्त करने और जानने की आज़ादी मूलभूत अधिकार में मिली। इस संविधान को बनने के 55 साल बाद ही सही, लेकिन आज जानने का हक यानि सूचना का अधिकार हमें एक कानून के रूप में मिला है।

एक पत्रकार होने के नाते मुझे हमेशा लगता रहा कि मीडिया लोगों तक सूचना पहुंचाने का काम तो करता है लेकिन वर्तमान में लोगों की जानकारी में किसी घटना, तथ्य या विचार को लोगों तक पहुंचाने में सबसे बड़ी बाधा भी इसी मीडिया ने ही खड़ी की है. कुछ उद्योग समूह या उनके द्वारा व्यापार बढ़ाने के लिए लाखों रुपए के वेतन पर रखे गए लोग यह तय करते हैं कि लोगों को क्या जानना है. महज़ उद्योग को फायदा पहुंचाने वाली सूचनाएं लोगों तक पहुंचाने के इस क्रम में जानकारी के आधार पर होने वाला मानवीय विकास थम गया है. सूचना का अधिकार कानून इस समस्या का कोई व्यापक समाधान तो नहीं देता लेकिन लोकतंत्र प्रणाली को मजबूत करने के लिए लोगों को जिस तरह की जानकारी होनी लाज़िमी है वह इस कानून की मदद से अब फिर से लोगों को उपलब्ध है. सूचना के अधिकार कानून के बाद से अपनी व्यवस्था के बारे में जानने के लिए लोग अब पूरी तरह मीडिया पर निर्भर नहीं रहे हैं. किसी सड़क के बनने के बारे में या किसी स्कूल के खर्चे से लेकर किसी भी योजना के बारे में जानकारी लेने के लिए लोगों को पहले महज़ मीडिया पर निर्भर रहना पड़ता था. अब यह मीडिया कर्मियों की मेहरबानी पर था कि वे उस मुद्दे को खबर बनाएं या नहीं. लेकिन अब अगर कोई इस बारे में वाकई जानने का इच्छुक है तो वह सीधे सरकार से यह जानकारी हासिल कर सकता है. गंभिरता से विचार करते हैं तो समझ में आता है कि यह एक बहुत बड़ा कदम है।

शायद यही वजह है कि आज मेरे जैसे पत्रकारों को लोगों तक सूचना पहुंचाने के अपने नियमित काम की जगह ऐसी व्यवस्था में ज्यादा रुचि हो गई है जो कम से कम सरकारी संदर्भ में सूचना अगर लोगों के बीच किसी माध्यम की मोहताज न हो . यह कहते हुए मेरा दुराग्रह किसी भी तरह मीडिया और पत्रकारों की भूमिका को कम करने का नहीं है वरन नए संदर्भो में परिभाषित करना है जिसमें सूचना का अधिकार महत्वपूर्ण भूमिका निभा रहा है.

Monday, August 25, 2008

खबरों का बदलता चरित्र

संजय तिवारी
खबरों का चरित्र बदल रहा है। कुछ साल पहले जिन बातों को गाशिप के तौर पर छापा जाता था आज वे ही खबर का रूप धारण कर चुकी हैं। अब राजनीति, समाजनीति और अर्थनीति की जगह फिल्मी गाशिप और खेलकूद प्रमुख हो गये हैं। सेंटर फॉर मीडिया स्टडीज के एक ताजा अध्ययन में यह बात उभरकर सामने आयी है कि साल 2005 में फिल्मी गपशप, खेलकूद और अपराध् को टीवी चैनलों ने 28 प्रतिशत जगह दिया था वह पिछले साल 2007 में बढ़कर 50 प्रतिशत हो गया है। जबकि राजनीतिक खबरों का प्रतिशत 2005 में 23 प्रतिशत से घटकर सिर्फ़ 10 प्रतिशत रह गया है।साल 2004 में 24 समाचार चैनल थे जो 2007 में बढ़कर 43 हो गये हैं। अंग्रेजी चैनलों का फोकस खाने-पीने, मौज-मस्ती और बाजार से जुड़ी बातों पर है क्योंकि वे उभरते मध्यवर्ग के बीच अपनी पैठ बनाना चाहते हैं। जबकि हिन्दी चैनल की गलाकाट प्रतिस्पर्ध में खबर खत्म ही हो गयी है। अब यह अंदाज लगाना मुश्किल है कि खबर क्या है और फिक्शन क्या है। यहां एक बात ध्यान देने की है कि कुल चैनल दर्शकों में अभी भी हिन्दी समाचार चैनलों के पास 13 प्रतिशत दर्शक हैं जबकि अंग्रेजी चैनल दो प्रतिशत और व्यावसायिक चैनल भी दो प्रतिशत लोग देखते हैं। इसलिए हिन्दी समाचार चैनलों की विज्ञापन दर अग्रेजी के चैनलों से ज्यादा है।10 सेकेण्ड के एक स्लाट के लिए औसत हिन्दी चैनल 1500 से 1700 रूपये वसूलता है जबकि इसी दस सेकेण्ड के स्लाट के लिए अंग्रेजी चैनल 1200 से 1500 रूपये लेता है। विज्ञापनदाता हिन्दी चैनलों के व्यवहार से खुश हैं। इसका परिणाम यह हुआ है कि साल 2004 में भाषाई चैनलों पर जहां 63 करोड़ रूपया खर्च किया गया था वहीं साल 2007 में 110 करोड़ रूपये खर्च किये गये। जैसा कि सीएनएन आईबीएन के मुख्य संपादक राजदीप सरदेसाई कहते हैं ‘संख्या का अपना महत्व है। इस लिहाज से हिन्दी का वर्चस्व तो बना ही रहेगा।’ जाहिर सी बात है जब संख्या महत्वपूर्ण हो जाए तो क्वालिटी की बात करना कहां तक उचित होगा।

Sunday, August 10, 2008

ये कैसी पत्रकारिता

आशुतोष
बीते साल नवंबर में असम की राजधनी दिसपुर की एक घटना सभ्यता को कलंकित करने वाला थी। झारखंड से पीढ़ियों पहले चाय बागानों में मजदूरी करने के लिये आए जनजाति के लोग असम में भी जनजाति की सूची में शामिल किए जाने की मांग को लेकर प्रदर्शन कर रहे थे। प्रदर्शन समाप्त होते ही रैली में शामिल कुछ असामाजिक तत्वों ने अचानक तोड़-फोड़ शुरू कर दी। स्थानीय निवासियों ने भी भरसक प्रतिक्रिया की, पुलिस तमाशबीन बनी रही।यहां तक का घटनाक्रम तो वही है जो हम गाहे-बगाहे देखते रहते हैं । असामान्य घटना इसके बाद हुई। रैली में शामिल लोगों को स्थानीय लोगों ने घेरकर मारना शुरू कर दिया। दर्जन भर प्रदर्शनकारी इस घटना में मारे गये। महिलाओं के साथ घिनोनी घटना हुई। हद तब हो गयी जब असामाजिक तत्वों ने एक आदिवासी लड़की को पूरी तरह निर्वस्त्र कर दिया, उसके गुप्तांग को जूते से कुचला। मौके पर मौजूद प्रेस फोटो ग्राफरों ने उसे बचाने के बजाए इस वीभत्स घटना के दुर्लभ चित्र लिए । मुहल्ले के शोहदे भी पीछे नहीं थे। वे सड़क पर निर्वस्त्र दौड़ती हुई उस लड़की के अपने मोबाइल से चित्र ले रहे थे और चुहल कर रहे थे। पुलिस की चुप्पी इनका मौन समर्थन कर रही थी। जब यह फोटो और फुटेज अखबार और चैनलों के दफ्रतर में पहुंचे तो कई पत्रकारों की आंखें चमक उठी । फोटोग्राफ ‘जोरदार’ थे। उनमें खबर भी थी और बिकावपन भी। टीआरपी बढ़ाने वाले सभी तत्व उसमें विद्यमान थे। इसका प्रसारण एक-दो चैनलों को छोड़कर सब ने किया। चैनलों पर बदलती शब्दावली के साथ उस लड़की के चित्र बार-बार दोहराए जाने लगे जिन पर छोटी काली पट्टी चिपका कर उसे प्रसारण योग्य बना दिया गया था। अगले दिन के समाचार पत्रों में भी इन चित्रों ने काफी जगह पाई। पत्रकारों व छायाकारों को इस अवसर पर मानवीय दायित्वों का निर्वाह करते हुए इस वीभत्स घटना को रोकने का प्रयास करना चाहिए या मानवीय संवेदनाओं को किनारे रख वे पत्रकार के रूप में अपने व्यावसायिक दायित्वों का निर्वाह कर रहे थे, यह पृथक बहस का विषय है। आज पत्रकारिता उस मुकाम पर आ खड़ी हुई है जहां नैतिक मूल्य निरर्थक माने जाने लगे हैं और सनसनी और सेक्स का घालमेल बिकावपन की गारंटी है। एक दशक पहले तक जहां पीड़ित लड़की का नाम भी बदल कर छापा जाता था वहीं इस घटना के फुटेज दिखाते समय उसका चेहरा भी छिपाना जरूरी नहीं समझा गया। सिर्फ उत्तर पूर्व के समाचार पत्रों में ही नहीं बल्कि झारखंड के समाचार पत्रों ने भी इस घटना को प्रथम पृष्ठ पर फोटो सहित छापा। इसके फौलोअप समाचार भी छपे लेकिन उनमें मूल समस्या के स्थान पर सतही चर्चा अधिक हुई। समाचार पत्रों और चैनलों द्वारा यह तर्क दिया जा सकता है कि उन्होंने घटना को यथारूप प्रस्तुत कर समाज के प्रति अपने दायित्व का निर्वहन किया है। यह भी कहा जा सकता है कि वह इन चित्रों को दिखा कर समाज की संवेदना को झकझोरने का प्रयास कर रहे थे। लेकिन यह तर्क अपने आप में खोखलेपन को उजागर करने वाले हैं।आरक्षण की मांग व स्थानीय और बाहरी की पहचान से उपजे सवाल केवल असम में ही नहीं अपितु देश के हर हिस्से में कभी धीमे और कभी तेज स्वर में उठते रहे हैं। पूर्वोत्तर के राज्यों में यह संवेदनाएं बेहद गहरी हैं। मुंबई में राज ठाकरे के बयान के बाद भड़की हिंसा इस समस्या के राजनीतिक मायनों की ओर भी सोचने की जरूरत को दर्शा रहा है। जिस तरह असम की घटना को मीडिया में दिखाया गया उससे समाज के विभिन्न वर्गों के बीच की दूरी को पाटने के बजाए बढ़ाने में ही मदद मिलेगी।अर्थव्यवस्था का एक बड़ा हिस्सा चाय बागानों से आता है और चाय बागानों का सारा काम-धम बिहार, झारखंड, बंगाल और उत्तर प्रदेश के श्रमिकों पर निर्भर है। असम की अर्थव्यवस्था और विकास की धुरी बन चुके बिहार और झारखंड के ये श्रमिक पीढ़ियों से इन बागानों में काम कर रहे हैं। स्थानीय समाज इनके श्रम को तो आवश्यक मानता है लेकिन उनके सामाजिक या राजनैतिक वजूद को स्वीकार करने को तैयार नहीं होता। राज्य में बड़ी संख्या में अधिकार पा चुके बांग्लादेशी घुसपैठियों के विरूढ जब पिछले विधानसभा चुनावों के पहले स्थानीय लोगों का गुस्सा फूटा था तो सरकार द्वारा न केवल उन्हें संरक्षण दिया गया अपितु उन्हें योजनाबढ ढंग से बसाया भी गया और राशनकार्ड भी जारी किये गये। अपने ही देश के नागरिक जब अपनी मांगों के समर्थन में रैली की इजाजत मांगते हैं तो इजाजत नहीं मिलती। जब वे जबरन सड़कों पर आकर तोड़फोड़ करने लगते हैं तो उन्हें रोका नहीं जाता, विरोध् में जब लोग उन पर हमला करते हैं तब भी पुलिस खामोश रहती है और मीडिया इस समूचे परिदृश्य पर बहस खड़ी करने के बजाय एक भयभीत निर्वस्त्र लड़की के सड़क पर भागने के चित्र दिखाकर सनसनी बेचती है।पत्राकारिता के इतिहास पर जिन्होंने नजर डाली है उन्हें याद है कि 6 अगस्त 1945 को हिरोशिमा की सड़क पर निर्वस्त्र भागती एक मासूम लड़की का चित्र एक छायाकार ने लिया था। अमेरिका के जिस लड़ाकू जहाज ने हिरोशिमा पर एटम बम गिराया था उसमें चार पत्रकार भी थे। उन्होंने तबाही के उस दृश्य को अपनी आंखों से देखा था और अमेरिकी अखबारों में उनके द्वारा दिये गये समाचार और छायाचित्र छपे भी थे। उनमें से एक पत्रकार को सर्वश्रेष्ठ रिपोर्टिंग के लिये पुरस्कृत भी किया गया था। वह पुरस्कृत किया जाने वाला पत्राकार भुलाया जा चुका है। पर एटम बम की आग से कपड़े जलने के बाद बदहवास हिरोशिमा की सड़क पर दौड़ रही उस लड़की का चित्र फोटो पत्राकारिता के जगत में आज भी ‘यूनिक’ है। उस चित्र के प्रकाशन के बाद न केवल उस चित्र को प्रतीक बनाकर विश्वशांति की चर्चा चली बल्कि आज भी वह लड़की संयुक्त राष्ट्र की आणविक हिंसा के विरूद्ध ‘शांति राजदूत’ है।